देश के मौजूदा हालात पर भी चिंतन करें...


इंदिरा के आपातकाल को याद करने वाले

देश के मौजूदा हालात पर भी चिंतन करें...

अब्दुल सत्तार सिलावट - वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक

नई दिल्ली। भारत को अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ादी का नारा देने वाले कोई राजनेता नहीं बल्कि सन्यासी थे। इसका उल्लेख बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनन्दमठ’ में मिलता है। इस आज़ादी की मुहिम को आगे बढ़ाते हुए 1887 में इंगलैंड की धरती पर दादा भाई नौरोजी ने भारतीय सुधार समिति की स्थापना की थी। और ब्रिटीश हाऊस ऑफ कॉमन्स का चुनाव लड़ने वाले पहले भारतीय भी दादा भाई नौरोजी ही थे। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आज़ादी की मांग करने वाले नौरोजी भारतीय देशद्रोही, गद्दार और अंग्रेजों की गोलियों का शिकार हुए जिनकी याद में आज भी हमारे राजनेता अपनी अपनी सुविधा और उनकी जाति के वोटों के लाभ लेने के लिए दादा भाई को अपनी पार्टी का आदर्श बताकर उनकी तस्वीरों, आदमकद प्रतिमाओं पर फूल चढ़ाते हैं।
भारत में दूसरी बार आज़ादी का नारा 18 मार्च 1974 को पटना के गांधी मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सिर्फ बिहार को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए विशाल रैली में दिया था और इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए जयप्रकाश ने रैली में मौजूद लोगों को जात-पात, तिलक, दहेज और भेदभाव छोड़ने का संकल्प दिलवाया था। लोकनायक के संकल्प से प्रभावित होकर गांधी मैदान की रैली में हजारों लोगों ने अपने जनेऊ तोड़ दिये थे और नया नारा गूंजा ‘जात-पात तोड़ दो, तिलक दहेज छोड़ दो, समाज के प्रवाह को नई दिशा में मोड़ दो।’
जयप्रकाश की यह क्रांति पटना-बिहार से बाहर निकलकर पूरे देश में फैल गई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह भय सताने लगा कि मेरे खिलाफ विदेशी ताकतें और अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए जेपी आन्दोलन को मदद कर रही है। इस बात का भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल के चार दशक बाद एक विशेष वार्ता में रहस्योद्घाटन किया। जेपी आन्दोलन को घर घर तक पहुंचाने के लिए देश भर के युवा और छात्र संगठन विश्वविद्यालयों, कोलेजों और स्कूलों से निकलकर सड़कों पर कूद पड़े। इनमें जनसंघ से सम्बन्धित एबीवीपी, समाजवादी और लोकदल से जुड़े ‘समाजवादी युवजन सभा’(एसवाईएस) के अलावा भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ी ऑल इंडिया स्टूडेन्ट फेडरेशन (एआईएसएफ) की अहम भूमिका थी।
आज देश की राजनीति में भूचाल ला रहे तथा राजनीति की दिशा बदलने के मुख्य चेहरों में लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, सुशील कुमार मोदी और देश के पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर 1974 में शुरु हुए जेपी आन्दोलन के छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के मुख्य हिस्सा थे। सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फैंकना था और मात्र एक साल में जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से देश का युवा ऐसा जुड़ा कि इंदिरा गांधी के पास अपनी सत्ता बचाने के लिए आपातकाल लगाने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं था और 25 जून की मध्य रात्रि में इंदिरा गांधी ने एक अप्रत्याशित कदम उठाकर 26 जून 1975 की सुबह को आपातकाल की पहली काली सुबह घोषित कर दी। आपातकाल का पहला प्रभाव देश भर में जेपी आन्दोलन से जुड़े तथा इंदिरा गांधी की सत्ता का विरोध कर रहे जनसंघ, समाजवादी, लोकदल और कम्यूनिस्टों के 600 से अधिक सक्रिय राष्ट्रीय और राज्य स्तर के नेताओं को जेलों में डालकर अमानवीय यातनाओं के आरोप भी सुनाई देने लगे।
अंग्रेजों के खिलाफ 1887 और इंदिरा गांधी के खिलाफ 1975 दोनों ही बार देश की जनता ने आज़ादी मांगी और उन्हें लाठी, गोली, देशद्रोह के मुकदमें और जेलों में ठूंसा गया। आज 2017 में आज़ादी की बात करने वाले, मौजूदा सरकार की नीतियों पर टिप्पणी करने वालों और ग़रीबों से किये गये वादों को याद दिलवाने वाले टीवी न्यूज़ चैनलों, अख़बारों, राजनेताओं को सरकार के समर्थकों की तरफ से देशद्रोही, पाकिस्तान समर्थक का फतवा देने के साथ सोशल मीडिया पर ज़हर उगलने के साथ डीएनए टेस्ट में पत्रकारों और समालोचकों को बाबर की औलादें घोषित किया जा रहा है।
सरकार समर्थकों के साथ सरकारी  नीतियों में नोटबंदी, 15 लाख की याद दिलाने वाले, अनुसूचितों पर ज़ुल्म दिख़ाने वालों की आवाज़ को रोकने के लिए टीवी चैनलों पर सीबीआई के छापे। अख़बारों को झूठी प्रसार संख्या बताकर विज्ञापन रोकना। यह काम मौजूदा सरकार में दिखाई देने लगे हैं।
आपातकाल में भाजपा के तत्कालीन संगठन जनसंघ के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हुए जुल्म को 42 साल बाद राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाकर याद किया जा रहा है। आपातकाल के पीड़ितों को स्वतंत्रता सेनानियों जैसा सम्मान और पैंशन की बातें होती है। मौजूदा सरकार अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन के समय की बात तो नहीं करती, लेकिन इंदिरा गांधी के आपातकाल के जुल्मों पर देश में कांग्रेस विरोधी मुहिम चलाकर राजनैतिक लाभ लेना चाहती है। लेकिन स्वयं सरकार और सरकार के समर्थक अपनी मौजूदा कार्यप्रणाली पर समीक्षा क्यों नहीं करते हैं? क्या मौजूदा सरकार सत्ता की स्थायित्व की दौड़ में इंदिरा गांधी के आपातकाल वाले मीडिया पर सेंसरशिप, सरकारी जांच और सुरक्षा एजेंसीयों का दुरूपयोग कर अपने विरोधियों को कुचलने की राह पर तो नहीं बढ़ रही है। मौजूदा सरकार के चाणक्य, सत्ता के कर्णधार एक बार पीछे मुड़कर देख लें, कि अंग्रेजों के जुल्म और इंदिरा गांधी के आपातकाल में भी भारत की जनता के मन की बात को नहीं दबा पाई थी, तो आप भी अपने समर्थकों पर लगाम लगाऐं। आप अपने टीवी चैनलों, अख़बारों और सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग कर चुनाव तो जीत सकते हैं, लेकिन 2014 वाला जनता का समर्थन, रैलीयों में लाखों की भीड़ जुटाना अब मुश्किल होता जा रहा है।

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